सुखांत, दु:खांत और अनंत

साहित्य और सिनेमा में कथाएं दु:खांत और सुखांत होती हैं। प्रेमियों का मिलन प्रस्तुत करने वाली फिल्में सुखांत और विरह वाली दु:खांत होती हैं। तमाम किंवदंती बन जाने वाली प्रेम कथाएं दु:खांत होती हैं। जैसे लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट। शरत बाबू का 'देवदास' दु:खांत है। महान फिल्मकार बिमल रॉय ने अपनी फिल्म 'देवदास' में प्रस्तुत किया कि देवदास विवाहित पारो के मकान के सामने अंतिम सांस लेता है और खबर पाते ही पारो द्वार की ओर दौड़ रही है। उसके पति के आदेश पर द्वार बंद किया जाता है। पारो का सिर दरवाजे से टकराता है। अंतिम शॉट में दो परिंदे आसमान में उड़ते दिखाए गए हैं। उनका प्रेम अनंत है। इस तरह बिमल रॉय ने अनंत प्रेम का आकलन प्रस्तुत किया।



जीवन के वाक्य में मृत्यु, पूर्णविराम नहीं है। वैज्ञानिक मानते हैं कि नश्वर संसार में केवल ध्वनि अजर, अमर है। हमारी सुनने की सीमा है, परंतु ध्वनि दसों दिशाओं में सदैव घूमती रहती है। जर्मनी से आए वैज्ञानिक ने कुरुक्षेत्र के मैदान में 'कराह' की आवाज को अपने आधुनिकतम टेप पर रिकॉर्ड किया है। खाकसार की कथा 'कुरुक्षेत्र की कराह' पाखी पत्रिका में प्रकाशित रचना है।



दरअसल फणीश्वर नाथ रेणु और शैलेंद्र की फिल्म 'तीसरी कसम' के अंत में गाड़ीवान हीरामन अपनी लीक पर बैलगाड़ी हांकता हुआ चला जाता है और हीराबाई 'नौटंकी यात्रा' पर रवाना हो जाती है। विवाह नहीं होने पर जुदा रहते हुए अपना काम करते रहना मर जाने से कठिन है। विरह को अपने जीवन में 'स्थायी' बना लेना दिव्य संगीत रचने सा महान है। रेणु और शैलेंद्र भी अनंत ही रचते हैं। ज्ञातव्य है कि केवल यमुना किनारे की रेत को ही रेणु कहा जाता है। गंगा, नर्मदा, कावेरी, ताप्ती के किनारे की रेत को रेणु नहीं कहते। यह भी गौरतलब है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में संस्थानों का नाम हैं नर्मदा, ताप्ती इत्यादि। भारत अपनी पूरी विविधता और प्राकृतिक सौंदर्य सहित इस महान संस्थान में मौजूद है। उसके निर्माण में दो विभागों के बीच दो-तीन मील के क्षेत्र के वन को जस का तस रखा गया है। सुबह की सैर में हिरण, खरगोश और विविध पक्षी दिखाई देते हैं।



शेक्सपीयर के लिखे नाटकों में त्रासदी की संख्या सुखांत नाटकों से अधिक है। इतिहास प्रेरित नाटक भी उन्होंने लिखे हैं। कालिदास की महान रचनाओं का अनुवाद कई भाषाओं में किया जा चुका है। विशाल भारद्वाज ने 'मैकबेथ' प्रेरित 'मिया मकबूल' बनाई, जिसे पसंद किया गया, परंतु 'हैमलेट' प्रेरित 'हैदर' प्रभावोत्पादक नहीं रही। भारत में किशोर साहू ने 'हैमलेट' प्रेरित फिल्म बनाई थी। जिसके संवाद भी पद्य में थे। चेतन आनंद की हीर-रांझा भी कैफी आजमी साहब ने पद्य में रची थी।



दरअसल प्रेम में मिलन और विरह को बहुत महत्व दिया गया है। प्रेम को भी ऊर्जा का स्रोत माना गया है, परंतु अपना काम करते रहना और स्वयं को मांझते रहना ही सार्थकता है। व्यवस्था द्वारा रचे ठीकरों से जीवन को चमकाते रहना है। हॉलीवुड में एक प्रयोग किया गया। फिल्म के सार्वजनिक प्रदर्शन के पहले ही फिल्म एक छविगृह में चुनिंदा दर्शकों को दिखाई गई। दर्शक चुनते समय यह ध्यान रखा गया कि उसमें कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट, गोरे-काले सभी समुदायों के लोग लिए जाएं। उस छविगृह में दर्शक की कुर्सी पर हरे और लाल रंग के बटन थे और हिदायत दी गई थी कि क्लाइमेक्स प्रारंभ होती ही दर्शक बटन दबाएं और सुखांत देखने वाले हरा बटन दबाएं और दु:खांत देखने की चाह रखने वाले लाल बटन दबाएं। मतदान के आधार पर अंतिम रील सुखांत या दु:खांत दिखाई जाएगी, क्योंकि फिल्मकार ने दोनों तरह से शूट किया था। एक बार समान संख्या में मत पड़े और प्रोजेक्शन रूम में रखा गया कम्प्यूटर कन्फ्यूज हो गया। रेणु और शैलेंद्र की 'तीसरी कसम' ऐसी ही विरल फिल्म है।



अभिनय के प्रारंभिक दौर में दिलीप कुमार ने लगातार दु:खांत फिल्मों में अभिनय किया। परिणाम यह हुआ कि वे नैराश्य से घिर गए। दिलीप कुमार लंदन के मनोचिकित्सक को मिले। सारी बात जानकर विशेष ने उन्हें परामर्श दिया कि उन्हें सुखांत और हास्य फिल्मों में काम करना चाहिए। इसी कारण उन्होंने 'आजाद', 'कोहिनूर', 'राम और श्याम' अभिनीत की। इस तरह सुखांत और हास्य फिल्म में अभिनय करके वे अपने नैराश्य से छुटकारा प्राप्त कर सके।



व्यवस्था द्वारा रचे इस विषय कालखंड में अवाम को किशोर कुमार की 'चलती का नाम गाड़ी', ज्योति स्वरूप निर्देशित 'पड़ोसन' और गुलजार की 'अंगूर' देखना चाहिए। सिनेमा विधा के पहले कवि चार्ली चैप्लिन का कथन है कि जिस दिन मनुष्य हंसता नहीं है, वह दिन व्यर्थ हो जाता है।